कोई मुश्किल नहीं
रमेश पोखरियाल ' निशंक '
विनसर पब्लिशिंग कं०
देहरादून - उत्तराखंड
प्रकाशक :
विनसर पब्लिशिंग कं०
8, प्रथम तल, के.सी. सेंटर
4, डिस्पेंसरी रोड, देहरादून - 248 001
Website: www.winsar.org
Email : winsar.nawani@gmail.com
ISBN : 81-86844-22-8
संस्करण : 2005
आवृत्ति, 2008, 2015
सबकी मुश्किलों को
समझने की चिंता
कविता का सबसे बुनियादी काम है व्यक्ति के भीतर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को जन्म देना। न्याय और सौंदर्य की पहचान को मानव-मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में पुनर्स्थापित करना व उन्हें युगीन समस्याओं के साथ भाषिक संरचना का अंग बनाना, प्राचीन काल से कविता का यह मुख्य स्वभाव रहा है।
कविता अपनी गहरी सादगी के साथ सभी पाखंडों के विरुद्ध रही है, चाहे उन्हें कितना ही बड़ा संस्थाबद्ध रूप क्यों न दे दिया गया हो। आज भी कवि से यही अपेक्षा की जाती है कि जानी-समझी चीजों के बारे में भी कोई नयी बात कहे। अकथनीय नहीं बल्कि अकथित को कहे, इसलिए कवियों के संघर्ष नये विषय और नये शिल्प कि तलाश से भी आँके जाते हैं। कविता संबंधी प्राप्त संस्कार अक्सर नयी तलाश के बजाय बने-बनाये मुहावरे और बने-बनाये बिंबों की ओर कवि को जबरन ले जाते हैं। उन संस्कारों से मुक्ति का प्रयास कवि को सबसे पहले करना होता है। कवि की कई मुश्किलें हैं, क्योंकि उसे यह भी जानना होता है कि जिस बात को जिस तरह मैं कह रहा हूँ, उस तरह उसको अब तक किसी और ने नहीं कहा है। इन कठिनाइयों के बावजूद अपना काम करते हुए कवि रमेश पोखरियाल 'निशंक' अपनी कविता के लिए नया रास्ता निकालने की जद्दोजहद से गुजर रहे हैं। वे 'कोई मुश्किल' ऐसी छोड़ना नहीं चाहते जो पहचानी न गयी हो और जिससे कवि जूझा न हो।
कवि को अपनी सामर्थ्य और सीमाओं की सार्थकता और निरर्थकता की जितनी पहचान हो जाय उतना ही उसको नयी ऊर्जा जुटाने में मदद मिलती है। कवि 'निशंक' भी अपनी सभी कविताओं में अपने भावावेग से संचालित हुए हैं, अपनी वितृष्णा और विरक्ति से नहीं। संसार, दुनिया, जीवन और लोग कवि के मोहिल विश्वासों में शामिल हैं। उनकी चिंता और दुर्दशा से वे अपनी कविता को दूर नहीं ले जाना चाहते। कवि का ध्येय है कि जो भी अप्रिय है और जो भी अशुभ है उसमें परिवर्तन हो। कवि का दुःख-बोध और आत्म-बोध बिना किसी अलंकार के इन पंक्तियों में प्रकट हो जाता है-
हर दुःख तो इस जग में मेरा है
इस तरह दर्दों ने घेरा है।
कवि को समाज में 'दुर्भाग्य का तम' अधिक फैला हुआ दिखता है। इस अंधकार को दूर करने के लिए वह कई प्रकार के दिये जलाना चाहता है। कभी सत्य का, कभी संकल्प का, कभी आन-बान का और कभी आँसुओं का। कवि अपनी घोर निराशा मिटाने के लिए न हँसी बाँटता है, न मुस्कान, बल्कि वह किसी ऐसे शब्द की आराधना या कामना करता है जो उसकी कविता को एक नया और जीवंत अर्थ प्रदान कर सके-
तुम शाम बनो , रात बनो या सबेरा
पर तुम्हें दिन भी बनना है
मिटाकर अंधेरा।
तुम मुस्कान दे दोगे
तो आँसुओं का अर्थ बदल जायेगा
सिर्फ गीतों के पक्ष में नहीं
तुम शब्दों के पक्ष में आ जाओ
तो हर शब्द एक नया कल लायेगा।
इस तरह निर्माण से सूनी गलियों में कवि का परिवर्तनशील मन जीवन की पहचान में अपने सरोकारों को खोजता और परिभाषित करता है। स्वप्न और कल्पना कवि का पीछा नहीं छोड़ते। कभी-कभी वे यथार्थ पर भी धुंधली चादर फैला देते हैं। आज के जीवन के यथार्थ की भाषा कवि को अपनी कविता के लिए अभी पानी है।युगीन खुरदुरापन अभी ठीक से आने को है। कवि उस रेखा पर पहुँच गया है जहाँ से कदम आगे बढ़ाते ही नया इलाका शुरू होने को है। 'खेत की व्यथा' को वह अब 'व्यथा के खेत में' बदल देना चाहता है। वह लौटने की बात भी इसलिए करता है क्योंकि जहाँ लौटना है वहाँ कुछ अच्छा परिवर्तन अपेक्षित है। तभी कवि के स्वप्न और कल्पना का नया संसार कुछ अलग सा रूप ले पायेगा।
रमेश पोखरियाल 'निशंक' की कविता से यह उम्मीद जगती है कि सचमुच साहित्य मनुष्य को बदलने की कला है। जो भी साहित्य के संपर्क में आता है, धीरे-धीरे बदल जाता है। यह बदल जाना वास्तव में है क्या ? निरंतर एक अच्छा व्यक्ति बनने की ओर अग्रसर रहने वाले लोग किसी प्रकार की दवा खाकर अच्छे नहीं बनते, बल्कि वे साहित्य और कलाओं के संसर्ग में स्वयं को परिमार्जित करते हैं और उन कलाओं को भी बदलने का प्रयास करते हैं। बदली हुई और निखरी हुई संवेदना वाले व्यक्ति के रूप में अपने को विकसित करने में लगे रहने वाले लोग हमेशा कुछ नया रचने के आकांक्षी रहते हैं। एक व्यक्ति को कवि या रचनाकार के रूप में देखते हुए उसके संवेदनागत बदलाव और विकास को उसकी रचनाओं में ही हम देख सकते हैं। इस तरह कवि की चिंता का मुख्य स्वर यह है कि- 'आज तो सब छोड़कर, इंसान ढूंढो कहाँ है'?
कवि 'निशंक' कि कविताओं में प्रकृतिवादी कवियों की तरह हर वस्तु के लिए भावातिरेक और भावावेग का प्रबल बाहुल्य है। देश-भूमि के प्रति उनकी भावाभिव्यक्ति अत्यंत बलिदानी किस्म की है। ईश्वर के प्रति प्रेमोदगार एक समर्पित प्राणी की तरह है।
कवि को लगता है कि मनुष्य ही भटक गया है। फिर भी वे अपने लिए एक कवियनोचित स्वातंत्रय कि इच्छा से बच नहीं सके हैं-
' न सीमा कहीं हो , न भय मरण का
न मोह निज से न किसी कि शरण का ' ।
देश के लिए उनमें अत्यधिक युवकोचित उत्साह है। उनका कवि नफरत की दीवारों के और समस्त कलुषों के विरुद्ध है। दुनिया से संघर्ष और दुनिया से प्यार, दोनों ही उनके कवि को शक्ति प्रदान करते हैं। बोध के उजाले में रहकर वे जिंदगी को बचाने के पक्ष में हैं। राजनीति के चक्रव्यूह में वे विषैले साँपों से घिरे अभिमन्यु की तरह खुद को देखते हैं। 'निशंक' की कविता में सारी खतरनाक और चुनौतीपूर्ण स्थितियों के बावजूद जीवन और दुनिया के प्रति गहरी आत्मीयता का भाव दिखता है- बहुत ही नजदीक मेरे रह रही है जिंदगी
मैं अनोखी दास्ताँ हूँ कह रही है जिंदगी।
पहाड़ को कवि ने अपनी कविता में सहिष्णुता का प्रतीक बताया है। अपने विचारों के लिए अनुकूल भावावेग में वे भाषा की परवाह न करने वाले कवि हैं यद्यपि उन्हें अभी छायावादी कविता के भाषा संस्कार से मुक्त होना है, फिर भी उनमें जीवन और जगत के प्रति बेहद लगाव है जिसे वे अच्छे अर्थों में बदल देने के पक्षधर हैं। यही वजह है कि 'निशंक' अपनी कविता में यथार्थ को भी आदर्श दृष्टि से देखते हैं। अनादर्श यथार्थ के कारणों में वे नहीं जाते। वे घोर आशावादी हैं और निराशा को खारिज करने के लिए तर्क की खोज नहीं बल्कि संकल्प और आस्था की खोज में जाते हैं। निपट निशा में भी आशा उन्हें अंधेरे में बहती गंगा की तरह दिखाई और सुनाई देती है। वे अपने कवि को सतर्क चालक की तरह देखते तो हैं पर अपने बाहर वे सुपथ में आने वाले भटकाव के निवारण की प्रार्थना भी करते दिखते हैं। वे राम के पथ पर भी मानव सम्मान को बचाये रखने के लिए जाना चाहते हैं और मानवीय मूल्यों अवमानना के लिए आदमी की तरह लड़ना भी चाहते हैं।
कवि में अपनी ही नहीं बल्कि सब की मुश्किलों को समझने का जज़बा जागा है तो हर बार एक नयी चीज की उम्मीद कवि से करना अनुचित नहीं लगता। इसी के साथ इस संग्रह के लिए बधाई।
सीताकुटी -लीलाधर जगूड़ी
बद्रीपुर रोड़, जोगीवाला
देहरादून (उत्तराखंड)
अपनी बात
इधर-उधर बिखरी अनेक रचनाओं को जिनका जन्म समय-समय पर भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में हुआ, उन सबको एकत्रित कर वर्ष 2005 में पुस्तक के रूप में आप सभी सुधी पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया गया था। मुझे अत्यंत प्रसन्नता है की मेरी रचनाओं को आप सब का अत्यंत स्नेह और प्यार मिला। चाहे दु:खों का घेरा रहा हो या आम आदमी की, इन रचनाओं ने जहां कुहासा और निराशा से बाहर निकलकर नया संसार बनाने का संकल्प लिया है, वहीं कदम हर कदम पर मिलती चुनौतियों को भी स्वीकारा है। जीवन को केवल भोग की वस्तु मानने वालों को जहां इन रचनाओं ने झकझोरने की कोशिश की है। वहीं पुरुषार्थ को नूतन बेला में जगाने का आह्वान किया है।
कदम-कदम पर जिस प्रकार आदमी को जिंदगी में संघर्ष झेलना पड़ता है, सुख-दु:ख के क्षणों को आत्मसात कर जमीन से आसमान छूने के वह सपने देखता है, उसका मन कभी मुक्त उड़ना चाहता है। कभी वह छला जाता है बाहर से, अंदर से, दूसरों से, यहाँ तक कि अपनों से लेकिन वह बढ़ता ही रहता है थकता नहीं, उन्हीं का प्रतिनिधित्व करती हैं ये कविताएँ।
पग-पग लोगों द्वारा मिले घावों को भी वह सँजोये है और जिनका मन अभी भरा नहीं है अन्यायों से, इन्हीं के अन्यायों के विरुद्ध संघर्ष भी कर रही हैं, ये स्वयं अंदर और बाहर के द्वंद से ऊपर उठकर नई चाह के साथ नई राह बनाकर खुशियों की बौछार करना चाहती हैं और देशवासियों को जागते रहने और भारत का भाग्य विधाता बनने का आह्वान करती हैं ये रचनाएँ।
इन्होंने जहर में भी अमृत ढूंढा है और जीवन मरण के प्रश्नों पर चुनौतियों को स्वीकार कर तमाम थपेड़े सहे पर हार नहीं मानी। निष्प्राण तन में भी ये प्राण लेकर आयी।
पहाड़ के गाँवों की पीड़ा भी है इनमें और भूकंप की ओर त्रासदी का वर्णन भी। विषैले साँप जहां चुनौती बने हैं वहीं दुर्गम पथ पर चलकर खामोश रहकर भी लड़ाई लड़ने का उन्होने मन बनाया है।
इनमें स्वयं जलकर भी प्रकाश देने की अभिलाषा है। प्रेम के दीप जलते हुए जिंदगी बचाने की बात भी ये करते हैं। इतना ही नहीं तो जिंदगी क्षण-प्रतिक्षण खत्म हो रही है, उस क्षण को जो तेजी से गुजर रहा है उसे अपने नाम करने की ललक है इन रचनाओं में।
ये गीत कहते हैं- जो देश के काम नहीं आई जवानी किसी काम की नहीं है, इसलिए अपनी धरती को हृदय से लगाकर उसी पर मर मिटकर देश की सुंदर बगिया में सदैव पुष्प की तरह खिलते रहने एवं हर दृष्टि से हरियाली की आशा है इनमें।
घोर अंधेरी रात के बाद सुबह होती है इसलिए बिना प्रतीक्षा किए ये गीत रात के घोर अंधेरे को चीरकर भी प्रकाश देने के लिए उद्यत हैं और कहीं भी किसी भी कोने पर अँधेरा न रह जाये इसलिए स्वयं ही किरण बनकर गुनगुनाना भी चाहती हैं।
उन्होनें सभी को हृदय से लगाया है पर आदमियों की इस भीड़ में भी अच्छा इंसान मुश्किल से मिलने पर चिंता जताई है।
वतन की चाह के सामने सब कुछ फीका है, सब बेकार है, धन दौलत सब मिट्टी के समान है। देश से सब कुछ लेने के बाद भी देश को कुछ छण देने वालों के प्रति मेरी कविताओं ने कठोरता दिखाई है और देश वासियों में देश के प्रति न्यौछावर होकर आगे बढ़ने और पूरे संसार में भारत की सहिष्णुता की धूम मचाने का आह्वान भी किया है।
समय आने पर ये प्रलयंकारी भी हैं किन्तु इन्होंने वह हर एक क्षण को प्रेरणादायी बनाने की मुहिम छेड़ी है। तमाम बाधाओं के बीच आगे बढ़ते रहने का आह्वान है - कोई मुश्किल नहीं
'कोई मुश्किल नहीं' काव्य संग्रह का यह संस्करण आपके हाथों में सौपते हुए मुझे संतोष हो रहा है। पूर्व की भाँति ही आप सब का उतना ही स्नेह मिलेगा ऐसी आशा और विश्वास है। आप सब के स्नेह का आकांक्षी हूँ।
-रमेश पोखरियाल 'निशंक '
वसंत पंचमी, 13 फरवरी, 2005
37/1, विजय कॉलोनी
रवीन्द्रनाथ टैगोर मार्ग
देहरादून, उत्तराखंड
(हिमालय)
अनुक्रम
1. मेरा स्वर्णिम स्वप्न
2. कह रही है ज़िंदगी
3. दर्द का सिलसिला
4. कोई मुश्किल नहीं
5. खामोश रहकर
6. उनके लिए
7. रो नहीं सकता
8. आ अब गाँव चलें
9. यादों में
10. भूचाल
11. प्रगति गीत बन
12. पीड़ा को सहा
13. वह कौन
14. जग में धूम मचा दो
15. तुम्हें दिन बनना है
16. मैं तेरे नाम की
17. क्या भूलूँ क्या याद करूँ
18. संकल्प लिया
19. सपने
20. नया संसार बना
21. इसी लिए जीता हूँ
22. एक है बगिया
23. प्यार रहे
24. इंसान ढूँढो कहाँ है?
25. जीत हो या हार
26. उमड़ रही है प्रीत
27. दर्दों का घेरा
28. उन्हें हृदय लगायें
29. जीना है तो
30. जिन्हें विश्वास नहीं
31. मार डाला
32. भारत की तकदीर उठो!
33. गीत मिलन के
34. भूकंप-त्रासदी
35. अपने ही आँसू
36. रस पिया
37. जीवन क्या पहिचाने
38. उत्तरांचल के गाँव
39. केवल वतन की चाह
40. तेरी सत्ता
41. नव प्राण दिया
42. व्यथा खेत की
43. दुनियाँ में फिर
44. जागते रहते
45. मुझे मुक्त उड़ना
46. विघ्न बहुत पाठ दुर्गम
47. मुझे गम नहीं
48. हम भारतवासी
49. मन और कहीं
50. न बैठ निराश
51. जिंदगी बचा ले
52. हर चुनौती
53. वह देश का नहीं
54. छोड़ो बेबस कहानी
55. विषैले साँप
56. बाधाओं ने हटना है
57. दुर्भाग्य का तम
58. ऐ वतन
59. प्रेम का दीप
60. गुमनाम बहुत
61. हमने क्या किया
62. इसलिए तुम हारते रहे
63. मैं पहाड़ हूँ
64. तुम्हारा मन न भरा
65. प्रलय की आशंका
66. लौटती जवानी
67. दर्द भरी कहानी
68. दिव्य रूप यहाँ
69. कब तक
70. आशा
71. सजगता
72. तुम्हारे पथ पर
73. पलक बिछाये क्यों
74. लौ जलाई है
75. जग में हताशा है
मेरा स्वर्णिम स्वप्न
घने बादलों का झुरमुट तो
क्षण भर मेन छंट जायेगा,
मेरा स्वर्णिम स्वप्न दिवस तो
सूर्य धरा पर लायेगा।
आच्छादित हो ज्योति धरा पर
श्वासों में बस जायेगी,
हर स्पंदन से कौंध-कौंध
वह अंतस में समायेगी,
ज्योतित होकर हर जन मानस, अंधकार मिटायेगा,
मेरा स्वर्णिम स्वप्न दिवस, सूर्य धरा पर लायेगा।
दैदीप्य धरा का कोना-कोना
जीवन पुष्प खिलायेगा,
धरती का कण-कण जीवित दे
अमृत रस बरसायेगा,
तोड़ कुहासों की कारा को, जीवन दीप जलायेगा।
मेरा स्वर्णिम स्वप्न दिवस, सूर्य धरा पर लायेगा।
कह रही है ज़िंदगी
बहुत नजदीक मेरे, रह रही है ज़िंदगी।
मैं अनोखी दासता हूँ कह रही है ज़िंदगी।
कुछ हकीकत है अगर
एक बुलबुला है जिंदगी,
बूंद सागर बन स्वयं
हँसाती-रुलाती ज़िंदगी
आज अपनों में पराई सी रही है जिंदगी,
मैं अनोखी दासता हूँ कह रही है ज़िंदगी।
हर तरफ ही भीड़ है
देखो यहाँ भगदड़ मची,
खो रहा तूफान में सब
एक श्वांस तक भी न बची।
तूफान के सारे थपेड़े सह रही है जिंदगी,
मैं अनोखी दासता हूँ कह रही है ज़िंदगी।
जिंदगी फूलों की बगिया
कंटकों का घेर भी,
कसमसाहट से भरा है
जिंदगी का फेर भी।
इक बूंद आशा का समुंदर, बन रही है जिंदगी,
मैं अनोखी दासता हूँ कह रही है ज़िंदगी।
दर्द का सिलसिला
जिंदगी की श्वांस में
मंजिलों की आस में
कारवाँ बन बढ़ रहा, दर्द का यह सिलसिला है।
प्यार की एक बूंद को
हर पल तरसते
किंतु बदले में मिले
पत्थर तरसते
कुछ न पुछो जिंदगी से, गम सहित क्या-क्या मिला है
कारवाँ बन बढ़ रहा, दर्द का यह सिलसिला है।
इस छोर से उस छोर तक
सभी को परखते रहे,
किंतु पग-पग में मिला छल
जिसके सभी गम सहे
कौन जाने कब ढहेगा, घोर दु:ख का ये किला है,
कारवाँ बन बढ़ रहा, दर्द का यह सिलसिला है।
आस की नन्हीं किरण
झेलती तम को रही,
कभी तो तूफान कभी
बयार विष की भी बही
सफल कैसे हो सफर यह, जिंदगी का जो मिला है,
कारवाँ बन बढ़ रहा, दर्द का यह सिलसिला है।
कोई मुश्किल नहीं
तूफान आने पर भी बुझे न
तुम्हें तो दिया आज ऐसा जलाना,
संकल्प लेकर बढ़ो तो सही
कोई मुश्किल नहीं स्वर्ग धरती पर लाना।
दुखों का ज़हर भी पीकर स्वयं ही
खुशियों की रिमझिम वर्षा बहाना,
पूरी दुनिया को दिल में बसा तो सही
कोई मुश्किल नहीं है,क्षितिज को भी पाना।
किसी द्वार तक भी रहे न उदासी
उजाला बसा गीत खुशियों के गाना,
अमर बन के हर दिल में गुंजे सदा ही
कोइ मुश्किल नहीं गीत ऐसा बनाना।
जलधि कहीं भी मिले छोर न तो
किश्ती स्वयं ले तटों को मिलना,
जग में स्वयं जो महक ही बीखेरे
कोई मुश्किल नहीं पुष्प ऐसा खिलना।
आशा की पलकें प्रगति पथ बीछाकर
कठिन राह में पग न पीछे हटाना,
हर बुराई कुचलकर बढ़ो तो सही
कोई मुश्किल नहीं आसमां को झुकना।
खामोश रहकर
उन्होंने तो मिलकर ही मंजिल ढहाई
हर पत्थर को फिर भी जड़ता रहा मैं,
हर दुख उठाया, हिम्मत न हारी
खामोश रहकर भी लड़ता रहा मैं।
चलता रहा जबकि शालीन होकर
कदम हर कदम पर बड़ा दंश झेला,
उन्होंने किया खूब प्रपंच मिलकर
मेरे साथ हंस-हंस कुटिल खेल खेला।
हर कदम पर उन्होंने तो कांटो को बोया
उन पर ही चलकर बढ़ता रहा मैं,
हर दुख उठाया, हिम्मत न हारी
खामोश रह कर भी लड़ता रहा मैं।
स्वयं कर्म पथ पर, असह्य वेदना में
छिपकर भी रोता सिसकता रहा मैं,
जाना कहाँ था नहीं साथ कोई
स्वयं मार्ग अपना ही चुनता रहा मैं।
निशंक बन अकेले कंटीली डगर पर
स्वयं के ही मन से झगड़ता रहा मैं,
हर दु:ख उठाया, हिम्मत न हारी
खामोश रह कर भी लड़ता रहा मैं।
उनके लिए
उनकी खातिर सब कुछ खोकर
निशिदिन यों जलते ही रहे,
सुख-दुख की परवाह न कर
हम कंटक पाठ चलते ही रहे।
डिगे नहीं पल भी पथ से
चाहे सब कुछ खोया,
कांटो की शैय्या में रहकर
फिर भी फूलों की बोया।
पर वे हैं चुपके-छिपके
जिवन को छलते ही रहे
सुखदुख की परवाह न कर
हम कंटक पथ चलते ही रहे।
अपनी हर कुर्बानी देकर
हमने उन्हें बढ़ाया है,
ठोकर खाकर गिरे लाख पर
उनको सदा उठाया है।
सुख-दुख की परवाह न कर
हम कंटक पथ चलते ही रहें
वे क्या जाने पीड़ा क्या है
उनमें दिल का नाम नहीं,
पर को पीड़ा पहुंचाते हैं
दूजा कोई काम नहीं।
हम बांटते रहे सुधा रस
कुछ विष बामन करते ही रहे
सुख-दुख की परवाह न कर
हम कंटक पथ चलते ही रहे।
रो नहीं सकता
शिखर सामने है
अब एक क्षण भी
खो नहीं सकता,
सुबह का निकला हूँ
दिन गया, शाम गयी
आधी रात भी गयी
अब सो नहीं सकता।
सब असंभव है
यह कह कर केवल
रो नहीं सकता,
मुझे उगाने फूल
तुम कुछ भी करो
मैं कांटे बो नहीं सकता।
संकीर्णता के लिए
भीड़ भरी जिंदगी
ढो नहीं सकता,
कुछ करने के लिए जी रहा हूँ
और जीना चाहता हूँ
एक दिन शिखर बनकर
जिंदा लाश तो हो ही नहीं सकता
मैं रो नहीं सकता।
आ अब गाँव चले
आ अब गाँव चलें।
बाट तुम्हारी राह जोहती, नदियाँ हैं अकुलाई ,
पवन के झोंके तो ठहरे हैं, कलियाँ भी मुरझाई।
ईर्ष्या की लपटों से बचकर तरु की छांव चलें,
छोड़ सभी आडंबर जग के आ अब गाँव चलें।
तुझे कलुषता ने झुलसाया, दूषितता ने अकुलाया,
देख ले फिर से अपना अन्तस, क्या खोया क्या पाया।
सोच ले अब भी समय बचा है, व्यर्थ न हाथ मलें,
छोड़ सभी आडंबर जग के आ अब गाँव चलें।
नहीं कहीं ममता है दिखती, सहज भाव का नाम नहीं,
हत्या बर्बरता से अब तो, छूटी कोई शाम नहीं।
जाने इस प्रतिशोध अग्नि में, कितनों के अरमान जले,
छोड़ सभी आडंबर जग के आ अब गाँव चलें।
आज तो रिश्ते नाते टूटे, स्वार्थों में क्यों व्यक्ति खड़ा,
लक्ष्य शिखर पा जाने वाला, क्यों धूल-धूसरित आज पड़ा।
छला बहुत तुझको स्वार्थों ने, सोच ले तेरा कल न छले,
छोड़ सभी आडंबर जग के आ अब गाँव चलें।
यादों में
पल-पल ही अपने में
जीता हूँ मरता हूँ
कभी भूलता हूँ तो
कभी याद करता हूँ
प्यार के झरोखों से, याद बनकर झरता हूँ।
कदम हर कदम पर
रहा साथ जिसका,
अर्पण है तन-मन
ये जीवन भी उसका
सुख-दुख के आंसुओं से घट-घट भरता हूँ
प्यार के झरोखों से, याद बनकर झरता हूँ।
जीवन की राहों में
कभी नहीं बैठा
रैनों से पुछो क्या
पल भर भी लेटा
यहाँ-वहाँ,जहाँ-तहाँ तुझी को रचता हूँ
प्यार के झरोखों से, याद बनकर झरता हूँ।
भूचाल
टूटते हैं गिरि-शिखर, टूटता हर ढाल है,
काँपता हर मनुज दौड़ा, हाँफता बेहाल है।
हर कली अधखिली मूर्छित, टूटती हर डाल है,
दरारों में जा समाता, छल छलाता ताल है।
और वन के वन सभी, हो रहे बेहाल हैं।
झुर्रियाँ चेहरे पे छाई सिकुड़ता हर भाल है,
विवशता से जूझता, आँसू बहाता बाल है।
सहजता के अश्रु को भी छल रहा यह काल है,
बेखबर थे लोग सोये आ गया भूचाल है
खाक में मिल गया सब कुछ, कोई कर रहा पड़ताल है
मनुज के क्या हाथ की यह काल की ही चाल है।
प्रगति गीत बन
कामना है
आज इतनी
निराशा मिटाकर सफलता पाओ
समय की चुनौती
स्वीकार कर
संकल्प ले दिशा-दिशाओं में छाओ।
निश्चित ही समझो
प्रभा देहरी पर
आकर तुम्हारा स्वागत करेगी,
अभिनंदन तुम्हारा
कदम हर कदम पर
खुशियों से झोली तुम्हारी भरेगी।
काँटो में चलते हुए मुस्कुराओ
संकल्प ले दिशा-दिशाओं में छाओ।
निराशा का सारा
अंधेरा मिटाकर
सुहाना सवेरा बनकर दिखाओ
भटकते हुए जन को मुस्कान देकर
प्रगति गीत बन तुम्ही गुनगुनाओ
पुरुषार्थ से तुम धारा को सजाओ
संकल्प ले दीशा-दिशाओं में छाओ।
पीड़ा को सहा
पीड़ा को हमने सदा ही सहा है,
घेरा दुखों का सदा ही रहा है
किसी का न साया, मिला न सहारा,
बना दुःख में मजबूत दिल था हमारा।
'हम साथ तेरे' ये किसने कहा है?
घेरा दुखों का सदा ही रहा है।
मनुज से मनुज का उठा जो भरोसा,
संवेदना को उसने जी भर के कोसा
दुःखों का दावानल हृदय में जला है
घेरा दुःखों का सदा ही रहा है।
जलती है धरती, जला आसमाँ है
धरा आसमाँ की भी अजब दासतां है।
भरोसे से छल का जो धोखा मिला है,
घेरा दुखों का सदा ही रहा है।
अपना बनाया संसार सारा
दुनिया को जीता पर अपने से हारा।
सदियों से नयनों में सागर बहा है,
घेरा दुखों का सदा ही रहा है।
वह कौन ?
अपने पथ बढ़ता रहा मौन
देखो मुझसे, कहता कौन।
वसुधा का यौवन मधु गाता
मधुमास यहाँ कण-कण छाता,
हर सुबह बसंत बन आती है
जो खुशियों की झोली लाती है।
तुम कहो नहीं देखो बस मौन,
न जाने मुझसे कहता कौन।।
गर्जन कभी प्रलयंकारी
होता कभी कंपन भारी,
कभी स्वर मधुर गाते
जो कभी प्रलय लाते,
तुम देखो प्रलय रहकर भी मौन
न जाने मुझसे कहता कौन।।
जग में धूम मचा दो
जग में धूम मचा दो अब
अपने भारत के नाम की
जो जवानी, देश के काम न आये
वो जवानी, किस काम की।
सारे जग में सबसे सुंदर
प्यारा अपना देश है,
विश्व बंधुत्व और मानवता
भारत में ही शेष है।
भारत-भारत गूँजे कण-कण
न चाह किसी पैगाम की
जग में धूम मचा दो अब,
अपने भारत के नाम की।
विश्व गुरु कहलाता भारत
अब भी पूजित होता है,
नफ़रत की दीवार तोड़कर
शांति बीज का बोता है।
भारत की रक्षा में यौवन
फिर चिंता किस काम की,
जग में धूम मचा दो अब,
अपने भारत के नाम की।
तुम्हें दिन बनना है
तुम शाम बनो, रात बनो या सवेरा
पर तुम्हें दिन भी बनना है
मिटाकर अंधेरा।
तुम मुस्कान दे दोगे
तो आँसुओं का अर्थ बदल जायेगा
सिर्फ गीतों के पक्ष में नहीं
तुम भावनाओं के पक्ष में आजाओं
तो हर शब्द एक नया कल लायेगा।
बस आज इतनी निराशा तुम झेल जाओ
कल तुम्हारा है
चुनौती स्वीकार करो
समय की हो या मनुष्य की
यही तुम्हारी धारा है।
इस दिशा को समझो
यह कहाँ जा रही है
और संकल्प लो
संघर्ष तुम्हें थकने नहीं देंगे
न हार में
न जीत में
न ही निराशा में और नहीं आशा में
मुझे विश्वास है कि
गिरि शिखरों में
और काली घाटाओं में भी
तुम्हें दबने नहीं देंगे।
मैं तेरे नाम की
मैं तेरे नाम की
पूरी दुनियाँ में धूम मचा दूंगा,
तेरे परचम का
नूतन इतिहास रचा दूंगा।
एक बार बस! एक बार
छिपा गीत तो गाने दो
जिसकी मुझे प्रतीक्षा है
वह समय तो आने दो।
फिर तो मैं
सारी दुनियाँ की
पीड़ा निज में समा लूंगा,
तेरे अनुपम रंगों से
पूरी दुनिया रंगा दूंगा।
कण-कण की हर रग-रग में
बस तेरा नाम बसा दूंगा,
अपना स्वर्णिम जीवन दे
यह जीवन ज्योति जला लूंगा।
क्या भूलूँ क्या याद करूँ
क्या भूलूँ क्या याद करूँ मैं।
तड़प-तड़पकर भटक रहा था
क्या घनघोर विकट निशा थी,
पागल-पागल कहते थे सब
राह न कोई और दिशा थी।
इस दिल में जो घाव हैं गहरे
उन घावों को कैसे भरूँ मैं
समझ न पाता जान न पाया
क्या भूलूँ क्या याद करूँ मैं।
कदम-कदम पर काँटों से ही
आच्छादित था यह मग मेरा,
पीड़ाओं का आलिंगन था
कष्टों का घनघोर अंधेरा।
लघु जीवन के सघन विपिन में,
कब तक अपने दिल से डरूँ मैं,
तुम्ही बताओ किससे कहूँ क्या
क्या भूलूँ क्या याद करूँ मैं।
दुख की चरम-परम सीमा थी
भटक रहा तन व्याकुल मन था,
दुनियाँ भर में फिरता-फिरता
कहीं न दिखता अपनापन था।
दुत्कारा था इनने-उनने
सोच न पाया किधर चलूँ मैं।
कंठ रुँधा है बोल न पाता
क्या भूलूँ क्या याद करूँ मैं।
छला हमेशा भोलेपन को
डरावनी लगी ये हँसी थी,
पग-पग पर ही सहज सरलता
उनकी कुटिल वाणी ने डँसी थी।
दुःख ही दुःख तो झेले अब तक
कब तक दुःख के अश्रु ढरूँ मैं,
याद है सब कुछ याद न कुछ भी
क्या भूलूँ क्या याद करूँ मैं।
संकल्प लिया
हम भारतवासियों ने मिलकर, यह अनुष्ठान किया है,
दीप जला, घन तिमिर मिटाने का संकल लिया है।
वर्षों से शोसित वनवासी, जंगल-जंगल भटक रहे,
अपनी शिक्षा स्वच्छ दिशा हित, नित-नित हैं वे तरस रहे।
आज उन्हें संग ले चलने का, हमने अपना यत्न किया,
दीप जला, घन तिमिर मिटाने का संकल्प लिया।
गिरिवासी जो बंधु उपेक्षित, उनका मान बढ़ाना है,
ग्राम देवता के चरणों में तन-मन भेंट चढ़ाना है।
कष्टों में रहकर भी जिसने, मातृभूमि का मान किया है,
दीप जला, घन तिमिर मिटाने का संकल्प लिया है।
दक्षिण हो चाहे पूर्वान्चल, उत्तरांचल दिव्य हमारा है,
हिम का आँचल है मनोरम पश्चिमाञ्चल प्यारा है।
रूप विविध हैं भाव निराले, सबको हमने एक किया है,
दीप जला, घन तिमिर मिटाने का संकल्प लिया है।
मन भावन वसुधा है न्यारी, पावन संस्कृति है प्यारी,
पितृ देवता, मातृ देवता, अतिथि देव भावना न्यारी।
हमने तो गंगा-यमुना का अमृत पवन सलिल पिया है,
दीप जला, घन तिमिर मिटाने का संकल्प लिया है।
सपने
पूछो जरा इन सपनों से, क्यों चले आते हैं,
कहाँ से ये आते हैं, कहाँ चले जाते हैं।
कभी किसी स्वर्ण महल में
यों ही बिठा जाते हैं,
कभी बेबस बीहड़ों में
कहीं छोड़ आते हैं।
प्यार कभी देते हमें कहर कभी ढाते हैं,
कहाँ से ये आते हैं, कहाँ चले जाते हैं।
कल्पना से परे कभी
राजा भी बनाते हैं,
पल भर में रंक बना
जाने क्यों सताते हैं।
निराशा में धकेल कभी, विजय गीत गाते हैं,
कहाँ से ये आते हैं, कहाँ चले जाते हैं।
बाल कभी युवा सा
वृद्ध भी बनाते हैं,
कभी रूठ जाते हैं तो
रात भर जगाते हैं।
कल्पना के लोक में हँसाते ये रुलाते हैं,
कहाँ से ये आते हैं, कहाँ चले जाते हैं।
नया संसार बना
देख ले मानव फैला तेरे, अंधकार हर ओर घना,
स्वयं तोड़ खोखले अहं को, एक नया संसार बना।
तेरे इस तन-मन में जाने, कैसा भूत सवार हुआ,
सब कुछ भूल गया अपना यों भौतिकता से प्यार हुआ।
आज बचा हे मानव निज को, धरती का शृंगार बना,
स्वयं तोड़ खोखले अहं को, एक नया संसार बना।
सोच स्वयं तूने इस जग में, परहित में क्या काम किया,
तू ही बता इस पावन धरती, को किसने बदनाम किया।
लपटें फैली दुनियाँ भर में, मुरझाया हर एक जना,
स्वयं तोड़ खोखले अहं को, एक नया संसार बना।
यह निश्चित है जब मानव पर, दानव शासन करता है,
घुटती है पल-पल मानवता, जन-जन का मन रोता है।
छिन्न-छिन्न होते मानस का, एक नया परिवार बना,
स्वयं तोड़ खोखले अहं को, एक नया संसार बना।
इसी लिए जीता हूँ
मैं,
अपनी ही जमी पर
विश्वास करता हूँ
इसके लिए मैं
जीता हूँ मरता हूँ।
इसी की सुगंध
महकाने के लिए
श्वांस, हर श्वांस भरता हूँ
जमी को सजाने
दिन-रात एक करता हूँ।
इसके लिए हुआ हूँ
इसके लिए जिया हूँ
धरा पर तो बार-बार
जन्म-मरण करता हूँ
जन्म ले मैं बार-बार
इसी में ही जीता हूँ
मैं इसके लिए ही मरता हूँ
इसके लिए ही जीता हूँ।
एक है बगिया
एक है बगिया, पुष्प हैं सारे,
रंग-बिरंगे, प्यारे-प्यारे।
खुशबू के देखो निर्झर हैं,
गुंजन करते विश्व भ्रमर हैं,
रूप अनूठा, दृग मन हारे,
एक हैं बगिया, पुष्प हैं सारे।
जहाँ सजायें सज जाते हैं,
रचना नूतन रच आते हैं।
बढ़ते जो कांटो के सहारे,
एक है बगिया, पुष्प हैं सारे।
यह है भारत बगिया न्यारी,
दिखती जिसमें दुनिया सारी।
न्यौछावर जीवन है प्यारे,
एक है बगिया, पुष्प हैं सारे।
देवोपम फूलों की घाटी,
हिमगिरि की पावन है थाती।
और पथिक भी न्यारे-न्यारे,
एक हैं बगिया, पुष्प हैं सारे।
प्यार रहे
दीपक का बाती से संबंध जितना
जीवन में अपना रहे प्यार इतना।
तुम्हीं प्रेरणा बन मन में समाये,
हृदय के अंधेरे तुम्हीं ने मिटाए।
है सूरज का किरणों से संबंध जितना,
जीवन में अपना रहे प्यार इतना।
विपरीत हो जाए जग में निराला
पीना पड़े चाहे विष भर के प्याला,
सागर से गहरा पानी हो जितना
जीवन में अपना रहे प्यार इतना।
तुम्हीं में तो जीवन, हर पल संवारा
तभी तो हृदय ने जीवन पुकारा
चाँदनी का चंदा से संबंध जितना
जीवन में अपना रहे प्यार इतना।
इंसान ढूँढो कहाँ है ?
लक्ष्य उसका क्या निहित, गंतव्य उसका कहाँ है,
आज ढूँढो व्यक्ति को ये भटकता भी जहाँ है।
सोच कोरी रह गई
हर श्वांस दूषित हो गई,
आज तो बस हर कदम पर
मनुजता भी रो रही।
आज तो सब छोडकर, इंसान ढूँढो कहाँ है ?
आज ढूँढो व्यक्ति को ये भटकता भी जहाँ है।
आदर्श का चोला लिए
अब बात लंबी हो गई,
मतलब नहीं इस बात का, कि
क्या गलत है क्या सही।
खो गया क्यों सत्या ढूँढो, सत्यवादी कहाँ है ?
आज ढूँढो व्यक्ति को ये भटकता भी जहाँ है।
बंधु-बंधव को समझना
अब दिखावा रह गया,
प्रेम था वह है कहाँ
स्वार्थ में सब बह गया।
कहाँ है आत्मीयता, बंधुत्व खोया कहाँ है ?
आज ढूँढो व्यक्ति को ये भटकता भी जहाँ है।
जीत हो या हार
अंधेरी धरा हो भटकता जहाँ हो
गरजता-बरसता कड़क आसमां हो,
निज को जलाकर भी ज्योति जलाएंगे
सुख-दु:ख में बढ़ने का, सदा मन बनायेंगे।
गाँव हो या गलियाँ चाहे संसार हो
पहुँचना शिखर तक, जीत हो या हार हो,
हर राह ज़िंदगी के गीत गुनगुनायेंगे
सुख-दु:ख में बढ़ने का, सदा मन बनायेंगे।
चाँदनी सा उज्ज्वल, मन हो हमारा
वाणी यहाँ की गंगा की धारा,
अब सूर्य को ही धरा पर उठायेंगे
सुख-दु:ख में बढ़ने का, सदा मन बनायेंगे।
उमड़ रही है प्रीत
रिमझिम वर्षा घोर कुहेरा
उड़ रही है प्रीत रे,
कैसा मधुमय मौसम आया, आओ मेरे मीट रे।
मन से मत पुछो चंचल क्यों
दिल क्यों धक-धक करता है।
आँखों में आँसू लेकर क्यों
लंबी श्वांसे भरता है।।
कैसा है ये बेबस मन जो
गाता बिरही गीत रे!
कैसा मधुमय मौसम आया, आओ मेरे मीट रे।
आँखें अविरल तुम्हें निहारें
कौन कहाँ कब सोता है ?
जब-जब आती याद तुम्हारी
बरबस ही मन रोता है।।
कोई पूछे पागल मन से
कैसी होती प्रीत रे!
कैसा मधुमय मौसम आया, आओ मेरे मीट रे।
हर आहात, पदचापों में भी
तुमको ही पाया है।
व्याकुल मन ने तड़प-तड़प कर
केवल तुमको गाया है ॥
तुम्हीं बताओ कब तक गाऊँ
व्याकुलता के गीत रे!
कैसा मधुमय मौसम आया, आओ मेरे मीट रे।
दर्दों का घेरा
हर दुख लगा जग में तेरा है
इस तरह दर्दों का घेरा है।
कभी अपना भी दूर जाता रहा
मैं अकेला स्वयं को भुलाता रहा
यहाँ सुख के संग-संग ही दुख का बसेरा है
इस तरह दर्दों का घेरा है।
मैं तो तिल-तिल ही निज को जलाता रहा,
ठोकरें हर कदम पर भी खाता रहा।
मेरे दर्दों का लगा आज मेला है,
इस तरह दर्दों का घेरा है।
जिंदगी-मौत दोनों ही संग-संग रहे,
जाने जीवन में कितने थपेड़े सहे।
हर थपेड़ा हुआ आज मेरा है,
इस तरह दर्दों का घेरा है।
उन्हें हृदय लगायें
मिलकर बढ़ायें हम कदम, दिशा-दिशा में जायें रे,
आज मिलके हम सभी, देश गीत गायें रे।
ऊँच-नीच भेद त्याग आज सबको साथ लें,
पिछड़ गए असहाय है जो, पकड़ उनका हाथ लें।
नई डगर नई लहर, नई दिशा बनाए दे।
आज मिलके हम सभी देश गीत गायें रे।
देश के इतिहास में बलिदान लाख आये हैं,
शेखर-सुभाष-लाल तक मेरे वतन ने पाये हैं।
मातृभूमि हित स्वयं, राणा शिवा बनायें रे!
आज मिलके हम सभी देश गीत गायें रे।
शत्रु की ललकार पर हम सिंह से दहाड़ते,
बढ़ चलें ले काफिले हम मुश्किलें पछाड़ते।
जो बिछुड़ गये भटक, उनको हृदय लगायें रे!
आज मिलके हम सभी देश गीत गायें रे।
जीना है तो
जीना है तो उठ जाओ
राह नयी बना डालो।
नींद त्याग आलस्य छोड़
नव मन आज सजा डालो।।
काँटे बहुत विषैले नाग
संभल-संभल कर ही चलना।
कदम कदम पर बढ़ते जाना
चाहे तिल-तिल ही जलना।।
ज्योति-तमस संघर्ष घोर है
सूरज नया उगा डालो।
शोषण को अब मिटा धारा से
नूतन पर्व रचा डालो।।
जिन्हें विश्वास नहीं
जिन्हें स्वयं पर विश्वास नहीं
विश्वास किसे दे पाएंगे?
जो खुद ही विष से भरे हुये हैं
क्या अमृत बरसायेंगे।
जो थके हार घर बैठे हैं
वे मंजिल क्या दिखलायेंगे,
जो बात-बात में रोते रहते
विजय गीत क्या गायेंगे।
मार डाला
समझते रहे हम तो, अपनों में उनको
कुचलेंगे वे ही, पता क्या था हमको।
उन्होंने ही छिपकर स्वयं को ही मारा।
उनके लिए खुद को दु:ख में है डाला ॥
हमें कब थी निज की, सभी जानते हैं
सखा सबको अपना, सदा मानते हैं।
अर्पित जिन्हें की सुखद फूल माला,
उनके लिए खुद को दु:ख में है डाला ॥
जिनकी विमुखता तो, हरपल रही है
उन्हीं की ही सुंदर, सी मंजिल ढही है ।
पिया जिनको हमने जहर भर के प्याला,
उनके लिए खुद को दु:ख में है डाला ॥
किसी को न निज से, जो बड़ा मानते हैं
इज्जत किसी की वे, क्या जानते हैं ?
जीवन में हमको गमों ने भी पाला,
उनके लिए खुद को दु:ख में है डाला ॥
न जान वे खुद को, क्यों खुदा मानते हैं
कहाँ हैं वे खुद भी, नहीं जानते हैं।
जिन्होंने स्वयं को न मनुजता में ढाला,
उनके लिए खुद को दु:ख में है डाला ॥
भारत की तकदीर उठो !
दीन दरिद्र किसान उठो,
हे भारत की तकदीर उठो!
जग उठो भारत के तरुणों,
भारत की तस्वीर उठो!
हे भारत के भाग्य विधाता, तुम तंद्रा त्यागो उठ जाओ !
उठ जाग उठो भारत के कण-कण, पग-पग वैभव सरसाओ।
उठ जाओ, जग-जाग उठो
भारत की पावन भक्ति उठो,
उठ जाओ, उठ जाओ अब
भारत की सोयी शक्ति उठो।
करो सामना हर मुश्किल का, विजय पताका फहराओ,
उठ जाग उठो भारत के कण-कण, पग-पग वैभव सरसाओ।
निर्बल न बनो विश्वास करो,
हार शक्ति समायी तुममे हैं,
पूरी दुनिया भर की देखो
अनुरक्ति समायी तुममे है।
कारायें संशय की कैसे! कर्म वीरता दिखलाओ,
उठ जाग उठो भारत के कण-कण, पग-पग वैभव सरसाओ।
रावण मन जब-जब धरती की
पावनता को हरता है,
न्याय खड़ा तब तक मूक बना यों
आँखों में आँसू भरता है।
शक्ति जगाओ दुर्गा की, शिव-शंकर तुम बन जाओ,
उठ जाग उठो भारत के कण-कण, पग-पग वैभव सरसाओ।
गीत मिलन के
बहुत दिनों तक रहे भटकते
पाँव चले पर रहे अटकते।
जिस जीवन की ढूंढ मची है
वो जीवन मिल जायें,
चलती मधुर हवायें
अब गीत मिलन के गायें ॥
दिनों-दिनों से बाट जोहते
एक भाव में रहे थिरकते,
युग से प्यासे चले पथिक को
संगम की धारा पर रखते।
निज स्नेह की मधुर धार से
अपने पन को नहलायें,
चलती मधुर हवायें
अब गीत मिलन के गायें ॥
सुख गया तन फूल, विरह से
टूट गया गम सहते-सहते,
मन मयूर, घन बरसेगा कब
वह व्याकुल है कहते कहते।
अब इस जीवन बगिया में
हम नील गगम बन जायें,
चलती मधुर हवायें
गीत मिलन के गायें ॥
भूकंप - त्रासदी
भूकंप घोर त्रासदी का, पहाड़ पर आया था,
जिधर भी देखो उधर ही मौत का ही साया था।
घर-महल थे ढह गये
जवानियाँ थी सो गई
फट गई यहाँ-वहाँ
विकल धरा थी रो रही।
खेत और खलिहान हार बटिया को रोते पाया था,
भूकंप घोर त्रासदी का, पहाड़ पर आया था।
बच गई माता कहीं तो
पुत्र को विलख रही,
नवजात बालिका कहीं
दूध को किलक रही।
खंडहरों की छाया तक भी, क्रूर काल लाया था,
भूकंप घोर त्रासदी का, पहाड़ पर आया था।
मौत का तांडव दिखाती
मृत्यु भी विहस रही,
लाशों के बोझ से धरा
जहाँ-तहाँ थी धस रही।
मृत्यु को मानो किसी ने, चीख कर पुकारा था,
भूकंप घोर त्रासदी का, पहाड़ पर आया था।
खोपड़ी से महल तक भी
खाक में थे मिट गये,
गाँव थे लहू-लुहान
धरा पर थे लिट गये।
पशु थे असंख्य जिन पे कहर घोर ढाया था,
भूकंप घोर त्रासदी का, पहाड़ पर आया था।
मौत की यह मार देख
धरती भी रोई थी,
आँखों में आंसू लिए
बच्चों ने लाश ढोई थी।
देखकर हृदय विदार, दृश्य क्रूर छाया था,
भूकंप घोर त्रासदी का, पहाड़ पर आया था।
गगन भी करूँ क्रंदन
कर रहा पुकार था,
मौत का तांडव यहाँ
बेखबर संसार था।
हार कदम पे आज यहाँ, वेदना का साया था,
भूकंप घोर त्रासदी का, पहाड़ पर आया था।
अपने ही आँसू
अपने हैं आँसू, जिन्हें गोद लेता हूँ
दुखों को छुपाकर, खुशियों को देता हूँ।
रुँधते गले से न आवाज आती
अंतस में भारी चुभन है घुलायी।
पलकों के आँसू दुनियाँ से लेता हूँ,
दुखों को छुपाकर, खुशियों को देता हूँ।
मानव तो मानव पत्थर भी पूजा,
दिल जानता है कहाँ तक जूझा।
हर विष की धारा में अमृत ही लेता हूँ,
दुखों को छुपाकर, खुशियों को देता हूँ।
रस प्रिया
देश ने स्वाधीनता आज पाली
बढ़े थे अडिग पथ पर
बाट उनकी थी निराली।
ध्येय था बस एक ही
स्वाधीन भारत हम करेंगे,
जन्म लेंगे बार जितनी
इसी के हित हम मरेंगे।
हँसते हुए गाते हुए बलिदान अपना दिया था,
देश भक्ति का अनोखा, रस उन्होंने पिया था ॥
स्वयं को ही स्वयं से जब
प्रश्न थे ये पूछते,
प्रश्न के उत्तर स्वयं
उसने निरंतर जूझते
जूझने का ही प्राण तो जिंदगी भर लिया था,
देश भक्ति का अनोखा, रस उन्होंने पिया था ॥
जन्म लेना-मृत्यु पाना,
था कहाँ स्वीकार उनको,
देश की हर वादियों से,
प्यार था अगाध उनको।
देश हित जीवन मरण संकल्प सबने लिया था।
देश भक्ति का अनोखा, रस उन्होंने पिया था ॥
जीवन क्या पहिचाने
स्वार्थों को जो जीवन माने,
वह जीवन को क्या पहिचाने।
जिसने सुमनों के सुंदर
उपवन को झुलसा डाला,
कोमल किसलय कुचल स्वयं
पहनी कांटों की माला।
जो वैभव को सब कुछ माने
वह जीवन को क्या पहिचाने।
कुछ बाहर से दिखते मीठे
अंदर से उतने ही रीते
पशु-पक्षी मानव पर झपटे
बने हैं नरभक्षी ये चीते।
जो भले बुरे का भेद न जाने
वह जीवन को क्या पहिचाने।
निज हित उलट-पुलट को आतुर
वैभव बस जिसको प्यारा,
देश समर्पण प्रेम कुचल कर
उसने संवेदन मन मारा।
कृत्य किये जिसने मनमाने
वह जीवन को क्या पहिचाने।
उत्तरांचल के गाँव
कितने खूबसूरत हैं सारे,
उत्तरांचल के गाँव हैं प्यारे।
हैं घाटी चोटी में फैले
धोते हैं सबके मन मैले।
लगते हैं आकाश में तारे,
उत्तरांचल के गाँव हैं प्यारे।
अद्भुत इनकी देखो क्रीड़ा,
देश की रक्षा की भी पीड़ा।
झर-झर झरने, नदियाँ धारे,
उत्तरांचल के गाँव हैं प्यारे।
कोयल कू-कू करती रहती,
पावन नदियाँ मुक्त हैं बहती।
उमड़-धुमड़ कर आते सारे,
उत्तरांचल के गाँव हैं प्यारे।
गंगा-यमुना की धरती पर
बदरी और केदार यहाँ हर।
फूलों की घाटी मन हारे,
उत्तरांचल के गाँव हैं प्यारे।
केवल वतन की चाह
चाह न मन में
वतन की ही चाह हो,
हम करें पुरुषार्थ यूं
शोषित कोई न राह हो।
प्रेम की गंगा बहे
द्वेष का न नाम हो,
देश के संगीत में
डूबी हुई हार शाम हो।
हो स्वरों में सिंह नाद, प्रचंडता प्रवाह हो;
चाह न मन में रहे, वतन की ही चाह हो ॥
सकंट स्वयं घबरा मिटें
प्रखरता भी साथ हो,
जीवन-मरण के क्षणों में बस देश की ही बात हो।
राष्ट्रहित कुर्बानियाँ, कदम-कदम हर राह हो,
चाह न मन में रहे, वतन की ही चाह हो ॥
तेरी सत्ता
मैं
तेरा अनुसरण करूँ न करूँ
मैं तुझे मानूँ या न मानूँ
पर तू तो
सदा हृदय में रहता है,
तेरी धारा में सब बहते
तुझमें सुख-सागर बहता है।
तेरी सत्ता है अनंत
तू सारे जग का सृष्टा है,
तेरा ही जग तुझ में ही जग
तू ही जग का दृष्टा है।
तेरे गहरेपन का अब तक
कहीं न कोई पार है,
तुझ बिन यहाँ नहीं कोई
और न कोई संसार है।
नव प्राण दिया
जो भी दु:खी हुआ जीवन में
तेरे चरणों में आया,
सुख का अनुभव करके सबने
मन भावन-भावन पाया।
रूप अनेकों रचकर तूने
जग का ही कल्याण किया,
नीरस पड़ते जीवन को भी
नित नूतन नव प्राण दिया।
हर जीवन तुझ पर ही निर्भर
सुख का अनुभव करके सबने
मन भावन-भावन पाया।
जब-जब भी प्राणी ने निज को
घोर विपद में पाया,
परेशान हो करके उसने
तुझको शीश नवाया।
तेरी ही कृपा से बदली
हर मानव की काया,
सुख का अनुभव करके सबने
मन भावन-भावन पाया।
व्यथा खेत की
स्वामी के
घर आने का
इंतजार मुझको कब से,
जब से
स्वामी परदेश गये
बंजर पड़ा हुआ तब से।
बीजन की
क्षमता थी मुझमें
पर बेबस, जल पास नहीं था,
छोड़ गये
ऐसे में मुझको
क्या मेरा उपहास नहीं था ?
ऐसा नहीं कि
कुछ भी देने की मुझमें शक्ति नहीं थी,
जाना नहीं
किसी ने मुझको
शायद मुझसे अनुरक्ति नहीं थी ?
यदि मेरी
अनुरूप प्रकृति में
रम कोई साधन को करता,
तो यह निश्चित ही था
मैं उसकी गोदी को भरता।
विनती है
अब भी तो सुन लो
तुम मुझे नहीं भुलाओ
लौट चले आओ इस आँगन
मुझको फिर सरसाओ।
दुनियाँ में फिर
सृजन गीत गाते-गाते
नूतन वेला आयी है,
अरुणोदय के लिए यहाँ
नव-नव संदेश लायी है।
कहती है जो कहीं अंधेरा-
हो तो उसे मिटाना है,
अब तो जन-जन के हृदय में
सृजन गीत बिठाना है,
जड़ चेतन को भाने वाली
प्रभा मुस्कान भी लायी है,
सृजन गीत गाते-गाते,
नूतन वेला आयी है।
गंगा के इस पावन तट पर
देखो कैसे दृश्य मनोहर
ब्रह्मपुत्र के तीन पयोधर
सिंधु सुता की चर्चा घर-घर
अब तो दुनियाँ में फिर से,
भारत वाणी छायी है
सृजन गीत गाते-गाते,
नूतन वेला आयी है।
वेद वाक्य झरते हैं झर-झर
ब्रह्मा-विष्णु कहें शिव-शंकर
गौतम-गांधी के जीवन भी
रामकृष्ण की इस धरती पर
दु:ख का दारुण फेंक किनारे,
सुख की झोली लायी है
सृजन गीत गाते-गाते,
नूतन वेला आयी है।
जागते रहते
जो जग में जगते रहते
वे लक्ष्य शिखर पर हैं चढ़ते
घोर साधना की वेदी पर
इतिहास नया वे ही रचते।
और जिन्हें आलस्य घेरता
वे चोट विफलता की पाते,
मुरझाया चेहरा मन धुंधला
पग-पग ठोकर भी खाते।
दूर साधना से हैं जो
जीवन में ज्योति नहीं भरते,
इस धरती पर ऐसे मानव
ज्योतित नाम नहीं करते।
मुझे मुक्त उड़ना
मुझे मुक्त उड़ना
मुझे नव से जुड़ना
न कोई कहीं हो
न बाधा हो बंधन,
तृष्णा न लालच
कहीं हो न क्रंदन।
कहीं दूर तक भी
अवसाद हो न,
न घृणा कहीं पर
कहीं वाद हो न।
न सीमा कहीं हो
न भय मरण का,
न मोह निज से
न किसी की शरण का।
बढ़ाना है आगे
कहीं भी न मुड़ना,
मुझे मुक्त उड़ना,
मुझे नभ से जुड़ना।
विघ्न बहुत पाठ दुर्गम
यह पड़ाव मंजिल दूर है
विघ्न बहुत पथ दुर्गम है
बाधाओं की चट्टानों पर
आज समय बहुत कम है।
गाँव-गाँव और नगर-नगर
आँधियाँ है डगर-डगर
काली रातें मुँह बायें
कंटक भरी सभी राहें
पर निकल पड़ा पथरीले पथ में, परेशान मुझसे तम है,
बाधाओं की चट्टानों पर, आज समय बहुत कम है।
झंझावात बहुत सारे
पर उनमें स्वप्न बहुत प्यारे
स्वप्न धरा पर लाने हैं
मुरझाये मन हर्षाने हैं
भृकुटि तनी हुयी मेरी, आँखें हुई बहुत नम हैं,
बाधाओं की चट्टानों पर, आज समय बहुत कम है।
मुझे गम नहीं
मुझे गम नहीं
जमाने के बदलने का
मुझे शक्ति देने वाले
बस तू बादल न जाना,
दु:ख के तूफानों की परवाह नहीं
डर केवल इतना है मुझको
कि तू कहीं स्वयं ही,
तूफान बनकर नहीं आना।
हम भारतवासी
हम भारतवासी दुनियाँ को, पावन धाम बनायेंगे,
मन में श्रद्धा और प्रेम का, अद्भुत दृश्य दिखायेंगे।
ऊंच-नीच का भेद मिटाकर, दिल में प्यार बसायेंगे,
नफरत का हम तोड़ कुहासा, अमृत रस सरसायेंगे।
हम निराशा दूर भगाकर, फिर विश्वास जगायेंगे,
हम भारतवासी दुनियाँ को, पावन धाम बनायेंगे,
उलझन में उलझे लोगों को तत्वदीप समझायेंगे,
भटक रहे जो जीवन पथ से उनको राह दिखलायेंगे।
हम खुशियों के दीप जला, जीवन ज्योति जलायेंगे,
हम भारतवासी दुनियाँ को, पावन धाम बनायेंगे,
सत्य अहिंसा त्याग समर्पण कि बगिया महकायेंगे,
जग के सारे कलुष मिटा धरती को स्वर्ग बनायेंगे।
'विश्व-बंधुत्व' का मूल मंत्र, हम दुनियाँ से सरसायेंगे,
हम भारतवासी दुनियाँ को, पावन धाम बनायेंगे,
मन और कहीं
वे कहाँ हैं
और कहाँ जा रहे हैं
उन्हें कुछ भी पता नहीं है,
मदमस्त हुए
निज में खोये
वे कहीं, मन और कहीं है।
न बैठ निराश
बैठ निराश न तू जग हारा
दुनिया में बहुत कुछ प्यारा।
मनरूपी दर्पण जो काला
उसने सब दोषों को पाला
नैसर्गिक सुंदरता खोयी
कुत्सितता की झोली ढोयी,
मैल मिटा इस दर्पण से तू
देख दिखेगा सब उजियारा
बैठ निराश न तू जग हारा।
धूल जमी हो जिस दर्पण पर
कलह मची हो जिस-जिस भी धर
जिसने अंतस्थल न सँजोया
सुंदरता का बीज न बोया।
जगने पर भी रहा जो सोया
उसने सारा ही जग खोया
तोड़ सको तो तोड़ लो कारा
बदलेगी तब जीवन धारा,
तू फूल खिला जा जग में न्यारा
बैठ निराश न तू जग हारा ॥
जिंदगी बचा ले
समस्याओं से बोझिल
तेरा यह जीवन
भारी तूफानों से घिरा है ,
आँधियों के बीच
जीवन की अनुबुझ
पहेलियों में उलझा सिरा है।
अभी भी
मन स्थिति को पहिचान
परिस्थितियों को जान
तुझे तो इस भरी भीड़ में
खोया मन बचाना है,
थपेड़ों की मूर्छा त्याग
बन कर स्वयं में आग
तुझे आज धरती का अरमान सजाना है।
अभी भी अपने जीवन में
शक्ति को पहिचान
सार्थकता की अनुभूति सजा ले
बोध का उजाला भर-
संभावनाएँ साकार कर-
तू अब भी जिंदगी अब भी बचा ले।
हर चुनौती
हर विजेता को मिली है हर चुनौती
हर चुनौती का मजा कुछ और ही है,
जीतने के बाद भी यदि गम रहा तो
सोच लो, उसकी रजा कुछ और ही है।
वह देश का नहीं
जो देश से दुश्मनी करे
जो राष्ट्रपथ में कांटे भरे,
जो देश की छाती छले
वह देश के काबिल नहीं है,
जो देश को अपना न माने
देश की पीड़ा न जाने,
वह न हो सकता है अपना
देश में परदेश में चाहे कहीं है।
छोड़ो बेबस कहानी
छोड़ो पुरानी वो बेबस कहानी,
शुरू कर खुशी से नई ज़िंदगानी।
मौसम सुहाना, धरा पर है आया,
बदली है तरुवर ने प्राचीन काया
जीवन की पहली किरन बन सुहानी,
छोड़ो पुरानी वो बेबस कहानी,
शुरू कर खुशी से नई ज़िंदगानी।
चन्दन महक बन तुझे सरसहाना,
शिखर पर तुझे बैठकर चहचहाना।
अनमोल जीवन ने नई दृष्टि पायी,
छोड़ो पुरानी वो बेबस कहानी,
शुरू कर खुशी से नई ज़िंदगानी।
विवशता दिखे तो उसे त्यागना है,
संकटों में अहर्निश तुझे जागना है।
तुमको है नूतन किरण है उगानी,
छोड़ो पुरानी वो बेबस कहानी,
शुरू कर खुशी से नई ज़िंदगानी।
विषैले साँप
सड़क पर-
कुछ पत्थर पड़े थे,
कुछ लोग
उनको घेरे खड़े थे।
पता चला-
लोगों ने साँप को मारा है,
देखने में कोमल-प्यारा
पर विषैला सारा है।
मैं खड़ा-
कुछ देर सोच में पड़ा था,
'निशंक जाने कहाँ खो जाते हो'
एक मित्र मुझसे लड़ा था।
मैंने कहा-
इस साँप को देखकर तो
और साँपों की सोच रहा हूँ
मनुष्य रूप में फन फैलाये
लोगों की भीड़ में
आदमी खोज रहा हूँ
मैं देख रहा हूँ-
कदम-कदम पर
ये विषैले साँप खड़े हैं
और आस-पास
कम नहीं-
बहुतेरे पत्थर भी पड़े हैं।
पर इन्हें मारने की
कोई हिम्मत नहीं कर रहा है,
पता नहीं क्यों
आम आदमी
इन साँपों से डर रहा है।
बाधाओं ने हटना है
राह कंटीली जीवन की पर
बाधाओं ने हटना है,
भूखे-प्यासे चलते-फिरते
इस सफर ने कटना है।
खिलखिलाती किसी दुपहरी को
किसी शाम तो ढलना है,
पर शाम ढलने से पहले
घोर कुहासा हटना है।
गरज गये वे बादल जिनको
गरज-गरज कर छंटना है,
भूखे-प्यासे चलते-फिरते
इस सफर ने कटना है।
जीवन-मरण परवाह न किए
मेरे दुख को बंटना है,
अंदर-अंदर सुलग रहा जो
उससे राख़ को छटना है।
अपने ही पुरुषार्थ से ही
यह घोर कुहासा हटना है,
भूखे-प्यासे चलते-फिरते
इस सफर ने कटना है।
दुर्भाग्य का तम
जलायें स्वयं को, दुर्भाग्य का तम
किसी के न घर पर, कहीं भी रहे न।
स्वयं नींव बनकर, बनायें वो मंजिल
जो तूफान आने पर भी ढहे न ॥
घुटते-भटकते, अंधेरे में हैं जो,
पहल जो करें, नव किरण भी मिलेगा।
मुस्कान ओठों पर सदियों से उलझी,
चेहरे पे उनके हंसी भी खिलेगी ॥
मिटा दो सभी जन, कलुषता धरा से
ये दूषित हवा अब कहीं भी बहे न ।
जलायें स्वयं को दुर्भाग्य का तम
किसी के न घर पर, कहीं न रहे न ॥
निश्चित समझ लें, सुबह देहरी पर
आकार तुम्हारा ही स्वागत करेगी।
वंदन तुम्हारा कदम हर कदम पर
खुशियों से झोली तुम्हारी भरेगी ॥
पुरुषार्थ जागे जगायें सभी का
अन्याय कोई भी सहे न।
जलायें स्वयं को, दुर्भाग्य का तम
किसी के न घर पर, कहीं न रहे न ॥
ऐ वतन !
अभी भी है जंग जारी
वेदना सोयी नहीं है,
मनुजता होगी धरा पर
संवेदना खोयी नहीं है।
किया है बलिदान जीवन
निर्बलता ढोयी नहीं है,
कह रहा हूँ ए वतन!
तुझसे बड़ा कोई नहीं है।
प्रेम का दीप
नफ़रत फैली कदम-कदम पर इसको आज मिटाओ
प्रेम का दीप जलाओ, जग में प्रेम का दीप जलाओ।
हत्या हिंसा लपक रही है, विश्व बंधु मन तड़प रहा,
गंगा की पावनता छोड़े, राग-द्वेष क्यों पनप रहा।
जहां दूर तक कपट दिखे न, ऐसे मन बनाओ,
प्रेम का दीप जलाओ, जग में प्रेम का दीप जलाओ।
बांटा है कुछ ही तत्त्वों ने, देश को जाति-भाषा में,
अंधकार में भटके फिरते, सुबह-सुबह की आशा में।
भटके कभी न कोई जग में, ऐसी राह बनाओ,
प्रेम का दीप जलाओ, जग में प्रेम का दीप जलाओ।
कुछ चेहरे दिखते अच्छे पर, मन उनका दूषित सारा,
आँखों में अँधियारा है और भीतर घाट विष का सारा।
अँधियारा जग से एमआईटी जाए, नई रोशनी लाओ,
प्रेम का दीप जलाओ, जग में प्रेम का दीप जलाओ।
गुमनाम बहुत
देहरी में न दिया था
न साथ कोई
अंधेरा बहुत था
अकेला चला था,
गुमनाम अब भी
बहुत पूत माँ के
जिनके लहू से
चिरागे जला था।
हमने क्या किया
सब कुछ ही तो लिया देश देश से
हमने क्या दिया है,
सोचो देश की माटी में पल
हमने क्या किया है,
गंगा-यमुना की, माटी में
अमृत रस पिया है,
वसुधा की इस देव भूमि को
हमने क्या दिया है ?
इस माटी का कर्ज चुकाने हमने क्या किया है।
सब कुछ ही तो लिया देश से हमने क्या दिया है।
इसलिए तुम हारते रहे
समय की मार ने
मारा है उन्हें
'स्व' का बोध
कभी न रहा है जिन्हें।
ये
न जाने चुपचाप
क्यों सहते रहे इस मार को,
बस गूंगे-बहरे बन धृतराष्ट्र
चुपचाप
स्वीकारते रहे हार को।
तब भी
धृतराष्ट्र के सामने तो
बहुत कुछ हुआ था,
जिसने
आत्मा को झकझोर
अंदर तक को छुआ था।
सब
अनिष्ट होते देख
उन्होंने कुछ नहीं किया था,
ऐसा लगा
जैसे किसी युग ने
उन्हें घोर अभिशाप दिया था।
कि-
आँखों के होते हुए भी
तुम अंधे रहोगे,
मुँह के होते हुए भी
तुम कुछ न कहोगे।
तुम
कानों के होते हुए भी
कुछ सुन न सकोगे,
जिंदगी में मानवता की राह
कभी चुन न सकोगे।
इसीलिए
अभिशप्त धृतराष्ट्र
तुम अपनों से हारते रहे,
विनाश की विभीषिका
तुम मौन स्वीकारते रहे।
मैं पहाड़ हूँ
मैं
इसलिए चुप नहीं
कि मैं इतना शांत हूँ,
तुम नहीं जानते
कि
मैं कितना आक्रांत हूँ।
मौन हूँ
तो सिर्फ इसलिए
कि कहीं
मेरे शांति वन में अशांति न आये,
कहीं
मंद पवन, मलय समीर
स्वयं तूफान बनकर न छाये।
और फिर
मुझे हिमालय का
अनुपम धैर्य नहीं खोना है,
विश्व शांति का
ध्वज लिए यहाँ
मेरा हर एक कोना है।
मुझे तो
देश की एकता और अखंडता
हित जीना है,
मुझे गंगा और यमुना सरसाकर
जहर घूँट भी पीना है।
मुझे तो विष वमन करते
विषैले नाग मिटाने हैं,
मुझे तो
जन-जन के हृदय पटल में
समता के बीज उगाने हैं।
वैसे तो
मेरी एक छोटी चीख भी
प्रलय ला सकती है,
क्या दिग-दिगंतर तो क्या
ये
ब्रह्मांड हिला सकती है।
पर मैं
ऐसा नहीं होने दूँगा
मैं तो देश की आत्मा
प्यारा पहाड़ हूँ ,
मैं
संकल्प और शांति का प्रतीक
देश के सौंदर्य की
अनुपम बहार हूँ,
मैं पहाड़ हूँ।
तुम्हारा मन न भरा
उफ!
इतना खून बहाने के बाद भी
तुम्हारा मन नहीं भरा है,
जबकि
निर्दोष खून से सनी हुई
थरथराती ये धरा है।
रक्तरंजित अपने हाथों को
तुमने यों ही छिपा लिया,
अपनी खातिर दूजों के
अरमानों का कत्ल किया।
आज तुम्हारे दमन चक्र से
जन-जन सहमा और डरा है,
उफ!
इतना खून बहाने के बाद भी
तुम्हारा मन नहीं भरा है।
अपने स्वार्थों की खातिर तुमने
पीढ़ी को बर्बाद किया, माँ-बहिनों ने खून का आँसू, और
अपमानित विष का घूँट पिया।
और अभी भी वही क्रूरता
विष उगलने का वही ढर्रा है।
अरे!
कौन नहीं जानता
इस सबके बाद भी
तुम मसीहा बनते हो,
एक हाथ में पैसा रखते
दूजा खून से सनते हो।
संवेदना और मानवता पर
तुम्हारा मन ही मरा है,
उफ!
इतना खून बहाने के बाद भी
तुम्हारा मन नहीं भरा है।
प्रलय की आशंका
मन में उमड़ती आह!
जैसे समुद्र की थाह,
लहरे शांत
जैसे एकांत
फिर भी प्रलय की आशंका ने
तूफान मचाया है,
अंदर और बाहर
हृदय के तार-तार
ऐसे झंकृत हुए हैं
जैसे जलते दिये हैं
फिर भी घोर अंधेरी रात ने
जाने क्या खेल रचाया है,
प्रलय की आशंका ने लो फिर से
तूफान मचाया है।
लौटती जवानी
लाल चट्टानों को देख
मेरा मन भी
भारी उदास होता था,
हताश वेबस पहाड़ देखकर
कानन छिनने से
फूट-फूटकर रोता था।
इन ऊँची चट्टानों की
धार के ठीक उस पार
मेरा सुंदर गाँव बसा है,
मुझे तो
अपने गाँव से
अजीब प्रकार के अपनत्व का
नशा है।
तभी तो
मैं तो सब कुछ भूल
उल्लसित हो जाता हूँ,
सब कुछ छोड़
अपने गाँव की ओर
लपककर आता हूँ।
अब
मेरे गाँव से दूर कहीं
हरियाली दिखने लगी है,
मेरे
गाँव वालों के मन में
एक आशा सी जगी है।
कि
अब यह हरियाली
निश्चित हम तक भी आयेगी,
और
गाँव की मायूसी
नई उमंग को पायेगी।
इसलिए
मैं भी निकल पड़ा हूँ
अपने गाँव की ओर,
सुनो! सुनो!
'शहर छोड़ो गाँव चलो'
मचने लगा है शोर।
मुझे
अब लग रहा है
यह भोर की निशानी है,
जिनसे
खाली हुआ था गाँव
वह लौटती जवानी है।
दर्द भरी कहानी
किसी की भी पीड़ा किसी ने न जानी,
दर्द भरी है जीवन कहानी।
यातनाएं मुझे हर कदम पर मिली हैं
जीवन की कलियाँ कंटकों में खिली हैं।
अभी शेष कितनी सजाएँ सुनानी,
दर्द भरी है जीवन कहानी।
विश्वास को भी तो लोगों ने तोड़ा,
अपने ही थे वे जिन्होंने था छोड़ा।
कहाँ दिल की पीड़ा किसी ने भी जानी
दर्द भरी है जीवन कहानी।
संघर्ष भी तो कहाँ कम किया था,
मौत से झुझकर भी जीवन लिया था।
अभी चोट कितनी रही शेष खानी
दर्द भरी है जीवन कहानी।
दिव्य रूप यहाँ
माँ का अद्भुत आँचल देखे, मन विह्वल हो उठता है,
मानस की पावन युक्त धरा पर, नर नारायण हो मिलता है।
शुद्ध पावन मधु भाव भरा
जैसे गीता का ज्ञान लिए,
सुप्रभात का ओंस कणों में
झूमे अमृत पान किए।
जगत रचा है कर्म भरा, शांति पर्व यहाँ मिलता है,
मानस की पावन युक्त धरा पर, नर नारायण हो मिलता है।
नन्दन कानन अहा सुगंधा
जहां मिटे भोगों का फंदा
ऐसी है माँ धरती अपनी
जहां कदम-कदम पर नन्दा।
अंतस चेतन ब्रह्म समाया, सुख का वैभव मिलता है,
मानस की पावन युक्त धरा पर, नर नारायण हो मिलता है।
कष्टों में रहकर भी जिसने
केवल खुशियाँ बाँटी हैं,
कण-कण सोना उगल रही
देखो यह अपनी माटी है।
चाँद यहाँ आँगन में रहता, सूर्य जमीं पर खिलता है,
मानस की पावन युक्त धरा पर, नर नारायण हो मिलता है।
कब तक
उन्होने
बौना बना दिया
इतना इंसान को
कि उसने
छोटे छोटे स्वार्थों में ही
बेच डाला सम्मान को।
और
पूरी पीढ़ी को भी
पंगू बना दिया है,
इतना ही नहीं तो
गुमराही का जघन्य
अपराध भी किया है।
न जाने
कब तक ऐसे
इंसान स्वयं को छलता रहेगा,
और
अपने स्वार्थों के विष घट पर
न जाने कब तक पलता रहेगा।
आशा
तुम ही तो मेरे जीवन के
घोर तिमिर को हरती हो,
श्वांस-श्वांस में दिखती हो तुम
मूक प्रेरणा भरती हो।
घोर निराशा के मेघों में
इंद्रधनुष सी खिलती हो,
कंकण-पत्थर-कांटों में क्या
निपट निशा भी मिलती हो।
जब-जब भी निष्प्राण हुआ तन,
तभी समायी तन-मन में,
नभ गंगा सी दिखती हो तुम
अंतहीन जीवन पथ में।
सिहरन पैदा होती पल-पल
सागर हिचकोले भरता,
झूम-झूम सी जाती धरती
अंबर मधु वर्षा करता।
षडऋतु हो वर्षा क्या गर्मी
तुम तो मन में पलती हो,
छंद बहें, अंबर गूँजे
जब तुम संग-संग में चलती हो।
सजगता
चालक सतर्क है तो
बहुत कम समय में
बहुत बड़ा सफर तय कर सकते हैं,
राह में मिलते
खट्टे-मीठे अनुभव
हम अंतस में भर सकते हैं।
सजगता के साथ
यह सुनिश्चित हो कि-
सुपथ में भटकाव न आये,
इस चालक के
इस चालक के
इस मन पर न कभी
निराशा के बादल छाये।
तुम्हारे पथ पर
राम! तुम्हारे पथ पर चल कर, हम ऐसा संधान करेंगे।
दानवता की वृत्ति मिटाकर, मानव का सम्मान करेंगे।
सूपनखा, मारीच, सुबाहू
खर-दूषण पग-पग ललकारे,
अहिरावण और रावण जैसे
पग-पग पर बैठे हैं सारे।
अमृत देंगे हम जन-जन को, चाहे खुद विषपान करेंगे।
राम! तुम्हारे पथ पर चल कर, हम ऐसा संधान करेंगे।
ममता-समता बिलख रही है
सोया पौरुष, पीड़ित नारी,
सहज भाव आहें भरता है
मर्यादा का मर्दन जारी।
अब न कभी हम पल भर को भी, निष्ठा का अपमान सहेंगे।
राम! तुम्हारे पथ पर चल कर, हम ऐसा संधान करेंगे।
रक्षक भक्षक बन बैठे जब
नैतिकता का ह्रास हुआ,
मानवता आहें भरती क्यों
अर्पण का उपहास हुआ।
मानवता स्थापित करने चाहे कितना बलिदान करेंगे।
राम! तुम्हारे पथ पर चल कर, हम ऐसा संधान करेंगे।
पलक बिछाये क्यों
उसको पलक बिछाये हैं क्यों
जिसे देश नहीं भाता है
अन्न यहाँ का खाता है जो
गुनगान कहीं का गाता है।
लगाव नहीं जिसको अपनों से
जिसको माटी से पार नहीं
कोई घर परिवार नहीं
उसका कोई संसार नहीं।
लौ जलाई है
हरने तम की छाया को, मैंने लौ जलाई है,
तिल-तिल जलते रहने में न जाने कौन भलाई है।
हृदय का अँधियारा जग में
मन के मैले को धोये,
कितने दिन कितने क्षण तेरे
नाहक फिर तू क्यों रोये।
हर क्षण जिंदा रह जीने की, अमृत घूंट पिलाई है,
हरने तम की छाया को, मैंने लौ जलाई है
कलुष धरा से जड़मूल मिटाने
का ही अपना सपना है,
राग-द्वेष मिट जाये फिर तो
सारा ही जग अपना है।
जिस अनंत का नहीं छोर हो, ऐसी प्राति लगाई है,
हरने तम की छाया को, मैंने लौ जलाई है।
जग में हताशा है
पुरुषार्थ नहीं जिनके मानस में
संकल्पशीलता का नाम नहीं,
बात आसमां की क्या करते
धरती पर कोई काम नहीं।
आज पुनः निज श्रम निष्ठा से, संजोना हिंदुस्तान है,
अपनी धरती अपना अंबर अपना देश महान है।
संकल्पहीनता के कारण ही
जग में घोर हताशा है
मुरझाया चेहरा सर नीचा
छाया घोर कुहासा है।
आज मिटाने घोर कुहासा, जागा हिंदुस्तान है,
अपनी धरती अपना अंबर अपना देश महान है।
मधुर सुर संगीत कहाँ है
क्यों शब्दों में जहर घुला,
मन मंदिर के कपाट बंद क्यों
मधुशाला का द्वार खुला।
आज पुनः पावन, रंगों से रचना हिंदुस्तान है,
अपनी धरती अपना अंबर अपना देश महान है।